Saturday, January 12, 2013


आओ लिखे!
मैंने देखा है, तुम कागज़ के कोनों पर कुछ-कुछ लिखती तो हो
कल भी लिख रही थीं, दीवार से सटी
जैसे सबकुछ छुपा लेना चाहती थीं, मैंने कुछ तो देख लिया         
कागज़ पर नहीं तुम्हारी आंखों में, स्याही फैल सी गई है वहां भी
शायद शब्द तुम्हारी आंखों के आईने में खुद को देख कर रो पड़े हैं
काश तुम मुझसे साझा करती
मैं अपने प्रेम के रिमूवर से ठीक कर देता सब
फिर हम साथ मिलकर लिखते 
हर दीवार के कोने पर
नमस्कार...लंबे समय के बाद लौट रही हूं... वज़हें तमाम रहीं...खैर जल्द ही एक नई पोस्ट के साथ लौटूंगी।

Wednesday, August 19, 2009

हर डाल पर उल्लू बैठा है.....

जागती काली रात...सुबह से रूठी हुई...कुछ उजाले से साथ छूटने का गम...तो तन्हाई के तानों की बेचैनी....इसे कोई खुश कर सकता है...तो दूर पुराने पेड़ तर बैठा वो उल्लू... जो पूरा दिन इसी अंधेरे का इंतजार करता है....असल में यहां हर डाल पर एक उल्लू बैठा है....जिसे काली रात का इंतजार रहता है....देश की राजनीति की डाल पर पाखंड का उल्लू....आर्थिक जगत की टहनी पर निजीकरण का उल्लू...या कला व संस्कृति के गिरेबान पर बैठा पॉपलुर कल्चर का उल्लू....इन सभी उल्लुओं की ख़ास बात ये है कि...इन्हें सिर्फ रात में ही दिखता है...और जंगल की हर डाल पर इनका कब्जा है...सत्ता के गलियारे के चबुतरे पर जो पाखंड का उल्लू है..वो सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की भाषा बोलता है सरोकारों से उसका कोई लेना-देना नहीं...मजेदार बात ये है कि दिन के उजाले और आकाओं की सफेद पोशाक में ये उल्लू महाशय धराशाही हो जाते है...फिर रात के अंधेरे या ये कहे जनता की आंख पर जब लुभावने वादों की पट्टी बांध दी जाती है तब भी इन महाराज की आंखे बहुत तेज देखती है....शुरू होता है दौर लफ्फाजी का....झूठे दावों और वादों का.....आर्थिक जगत के उल्लू की बात तो और भी लाजवाब है...इनका तो एक ही उद्देश्य है कि...सारे दुनयावी प्रोडक्टस उठाओं और उन पर निजीकरण का लेबल लगा दो....ये उल्लू महाराज सराकारी दफ्तर के सामने वाले पेड़ पर ही बैठना पसंद करते है....जब मन आया सरकारी बाबू को खीच के लगा दी एक चपत...बाबू जी इनके तलवे चाटते है...आखिर चुनाव में वोट का जो सवाल है...अरे इन रतिया महाराज का बस चले तो सरकारी दफ्तर पर भी अपनी पाटनरशिप का लेबल चस्पा कर दे....आखिर में बात अगर पपलू बाबुआ की करे तो...इनकी लीला सबसे अपरमपार है...इन्होने तो कला के गले में हाथ डाल के उसकी आत्मा निकालने की ठान ली है...इनकी दीवानगी का चरम ही है कि...जो डिस्को थेक में पूरी रात नचाता है....और हां ये हर कलाकार के घर के सामने वाले पेड़ को हथियाये बैठे है...कब मौका मिले और उतार दे नशा कलाकार सत्तू लाल का...क्योकि अब तो बाजा सैट का बजेगा...कुल मिलाकर इस नये जमाने में राज तो अब उल्लू महाराज का ही चलेगा.....आखिर हर डाल पर इनका कब्जा जो हैं......

अपर्णा (5:28)

Monday, August 17, 2009

क्या मैं आपकों ड्राप कर सकती हूं ?

सोमवार को आफिस की तरफ तेज कदम....रास्तें में पैलोटी कॉलेज के सामने एक लड़की गाड़ी स्टार्ट करते हुए दिखी...सामान्य प्रतिक्रिया देख कर नजर फेर ली...तभी लगभग 1 मिनट बाद...वही गाड़ी मेरे ठीक बगल में रूकी...सफेद नक़ाब के पीछे से बेहद मीठा आग्रह...क्या मैं आपको ड्राप कर सकती हूं...मैं भौचक्क हुई और ठिठक कर जवाब...बिल्कुल...सिर्फ एक मिनट का सफर...उसने मुझे मेन रोड पर छोड़ दिया...रास्ते में सिर्फ नाम और कॉलेज पूछ पाई..नाम श्वेता, कॉलेज पैलोटी...कोर्स बीएड में न्यू एडमीशन...उसके बाद जब चलना शुरू किया... तो लगा मैंने फोन नंबर क्यू नहीं लिया..उसका पता क्यूं नहीं पूछा....इक मिनट का सफर बेचैन कर गया...पहली बार लगा खुद से मुलाकात हुई....लौटते वक्त उस नाकाब पोश से सिर्फ इतना कहां था...तुम्हें बहुत दूर तलक चलना है...सच अंतरआत्मा तक छू गया वो व्यक्ति....असल में वो एक लहर थी जो मुझे भिगो गई...वो एक अहसास था...जो कहीं गहरे पैठ कर गया...पुराने दिन याद आ गए..जब मैं कोचिंग जाती थी औऱ ऐसी ही गाड़ी रोक रोक कर किसी आंटी या बूढे से अंकल या किसी छोटू को लिफ्ट दिया करती थी....ऐसे में जब मैं कभी परेशानी में किसी लड़की को हाथ देती तो कोई गाड़ी नहीं रोकता...गुस्सा आता था लोग ऐसा क्यू करते है...छोटी सी बात क्यूं नहीं समझते...वो अपनी खाली सीट पर किसी जरूरतमंद को जगह दे सकते है...मुझे कई बार लोगों ने ऐसा करते टोका भी...लेकिन मैंने सुनी नहीं मुझे लगा...जो धूप में चल रहा है...उसके लिए ये छोटी सी सहायता बहुत बड़ी है...सच आज जब अपनी जगह उस नकाब पोश को देखा तो...दिल भर आया....पता नहीं क्यूं..उन सबकी जिन्हें कभी लिफ्ट दी थी...याद ताजा हो गई साथ ही एक एहसास...भी हुआ...संतुष्टि का...तृप्ति का ....लगा मैं तब सही थी...ऐसे लोग दुनिया में कम है...लेकिन है...ये समाज की अंगूठी में जड़ा हीरा है...जिनकी चमक कभी हल्की नहीं हो सकती ....और जिन्हें ये समाज पचा भी नहीं सकता...यहीं वज़ह है कि इन्हे या तो लोगों की धूर्तता से बचने की एतियात देकर ऐसा करने से रोका जाता है या पागल कह कर नकार दिया जाता है...बहराल मै तुम्हारे साथ हूं....और तुम्हे जल्दी खोज लूंगी......

अपर्णा (4:45)

Monday, August 10, 2009

जानती हो न मॉ

मैं जब रोना चाहती हूं पर रो नहीं पाती,
मेरे उदास चेहरे...कॉपते होठों...बरौनियों के पर्दे से झॉकते आसुओं को तुम देख लेती हो न...
मेरे दिल से उठी उमंगों के उफान को
जब मैं अभिव्यक्तिहीनता के बांध से रोक देती हूं..
तुम उसे अपने दिल में महसूस करती हो न...
अपनी गलती को जब मैं अपने चेहरे के बनावटी भावों से नकार देती हूं...
तुम उसे पहचान कर माफ कर देती हो न...
तुम सब जानती हो न मॉ....

अपर्णा(12:51)

Sunday, August 9, 2009

नीम का पेड़

आज मन कुछ ठीक नहीं
अपने घर के बाहर वाला नीम का पेड़ याद आ रहा है...
बड़ा गहरा रिश्ता रहा हमारा
मां की छड़ी से उसने मुझे कई बार बचाया
उसकी डालों ने मेरा भारी वज़न उठाया
अनीता मेरे बचपन की सहेली रोज शाम मुझसे वहीं मिलने आती
बाते करती जाती औऱ नाखूनों से पेड़ को कुरेदती थी..
बहरा बुआ को जब खुजली हुई तो उसी पेड़ के नीचे नीम की पत्ती तुड़वाने आती थी
चबूतरे पर बैठती...खैनी पीटती और मुहल्ले भर को गरियाती थी
गंगा चरण चाचा का लड़का मदन एक बार मुझसे वहीं भिड़ गया
मार कर भागा और चबूतरे पर ही गिर गया
दीपावली मे हम उस पेड़ के नीचे घरोनदा बनाते थे
पहले गोबर से लीपते फिर उसमे दिया जलाते थे
इस बार घर गयी तो वो पेड़ कट चुका था
चबूतरे पर देखा
तो एक नाखून...बुआ की खैनी...दिए का टुकड़ा और मेरा बचपन पड़ा था...

Saturday, August 8, 2009

उम्मीद नहीं किस्मत

दरअसल अपनी हार या गलती स्वीकारने का सामर्थ्य हममे नहीं होता...यहीं वज़ह है कि हम हार को भी महिमामंडित करते है...मैं यहां नैराश्यवाद की तरफदारी कतई नहीं कर रही...बस सच्चाई से अवगत कराना चाहती हूं...और साफ तौर पर यह कह देना चाहती हूं कि सच्चाई का सिर्फ सामना होना चाहिए...महिमामंडन नहीं....

गरजते बादल फिर धोखा दे गए..
आस बूंद आसूं सब ले गए...
वहां आंगन में एक बरतन का टुकड़ा अब भी रखा है..
उम्मीद नहीं...किस्मत, तप रहा है.......

अपर्णा(12:05)