Wednesday, August 19, 2009

हर डाल पर उल्लू बैठा है.....

जागती काली रात...सुबह से रूठी हुई...कुछ उजाले से साथ छूटने का गम...तो तन्हाई के तानों की बेचैनी....इसे कोई खुश कर सकता है...तो दूर पुराने पेड़ तर बैठा वो उल्लू... जो पूरा दिन इसी अंधेरे का इंतजार करता है....असल में यहां हर डाल पर एक उल्लू बैठा है....जिसे काली रात का इंतजार रहता है....देश की राजनीति की डाल पर पाखंड का उल्लू....आर्थिक जगत की टहनी पर निजीकरण का उल्लू...या कला व संस्कृति के गिरेबान पर बैठा पॉपलुर कल्चर का उल्लू....इन सभी उल्लुओं की ख़ास बात ये है कि...इन्हें सिर्फ रात में ही दिखता है...और जंगल की हर डाल पर इनका कब्जा है...सत्ता के गलियारे के चबुतरे पर जो पाखंड का उल्लू है..वो सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप की भाषा बोलता है सरोकारों से उसका कोई लेना-देना नहीं...मजेदार बात ये है कि दिन के उजाले और आकाओं की सफेद पोशाक में ये उल्लू महाशय धराशाही हो जाते है...फिर रात के अंधेरे या ये कहे जनता की आंख पर जब लुभावने वादों की पट्टी बांध दी जाती है तब भी इन महाराज की आंखे बहुत तेज देखती है....शुरू होता है दौर लफ्फाजी का....झूठे दावों और वादों का.....आर्थिक जगत के उल्लू की बात तो और भी लाजवाब है...इनका तो एक ही उद्देश्य है कि...सारे दुनयावी प्रोडक्टस उठाओं और उन पर निजीकरण का लेबल लगा दो....ये उल्लू महाराज सराकारी दफ्तर के सामने वाले पेड़ पर ही बैठना पसंद करते है....जब मन आया सरकारी बाबू को खीच के लगा दी एक चपत...बाबू जी इनके तलवे चाटते है...आखिर चुनाव में वोट का जो सवाल है...अरे इन रतिया महाराज का बस चले तो सरकारी दफ्तर पर भी अपनी पाटनरशिप का लेबल चस्पा कर दे....आखिर में बात अगर पपलू बाबुआ की करे तो...इनकी लीला सबसे अपरमपार है...इन्होने तो कला के गले में हाथ डाल के उसकी आत्मा निकालने की ठान ली है...इनकी दीवानगी का चरम ही है कि...जो डिस्को थेक में पूरी रात नचाता है....और हां ये हर कलाकार के घर के सामने वाले पेड़ को हथियाये बैठे है...कब मौका मिले और उतार दे नशा कलाकार सत्तू लाल का...क्योकि अब तो बाजा सैट का बजेगा...कुल मिलाकर इस नये जमाने में राज तो अब उल्लू महाराज का ही चलेगा.....आखिर हर डाल पर इनका कब्जा जो हैं......

अपर्णा (5:28)

Monday, August 17, 2009

क्या मैं आपकों ड्राप कर सकती हूं ?

सोमवार को आफिस की तरफ तेज कदम....रास्तें में पैलोटी कॉलेज के सामने एक लड़की गाड़ी स्टार्ट करते हुए दिखी...सामान्य प्रतिक्रिया देख कर नजर फेर ली...तभी लगभग 1 मिनट बाद...वही गाड़ी मेरे ठीक बगल में रूकी...सफेद नक़ाब के पीछे से बेहद मीठा आग्रह...क्या मैं आपको ड्राप कर सकती हूं...मैं भौचक्क हुई और ठिठक कर जवाब...बिल्कुल...सिर्फ एक मिनट का सफर...उसने मुझे मेन रोड पर छोड़ दिया...रास्ते में सिर्फ नाम और कॉलेज पूछ पाई..नाम श्वेता, कॉलेज पैलोटी...कोर्स बीएड में न्यू एडमीशन...उसके बाद जब चलना शुरू किया... तो लगा मैंने फोन नंबर क्यू नहीं लिया..उसका पता क्यूं नहीं पूछा....इक मिनट का सफर बेचैन कर गया...पहली बार लगा खुद से मुलाकात हुई....लौटते वक्त उस नाकाब पोश से सिर्फ इतना कहां था...तुम्हें बहुत दूर तलक चलना है...सच अंतरआत्मा तक छू गया वो व्यक्ति....असल में वो एक लहर थी जो मुझे भिगो गई...वो एक अहसास था...जो कहीं गहरे पैठ कर गया...पुराने दिन याद आ गए..जब मैं कोचिंग जाती थी औऱ ऐसी ही गाड़ी रोक रोक कर किसी आंटी या बूढे से अंकल या किसी छोटू को लिफ्ट दिया करती थी....ऐसे में जब मैं कभी परेशानी में किसी लड़की को हाथ देती तो कोई गाड़ी नहीं रोकता...गुस्सा आता था लोग ऐसा क्यू करते है...छोटी सी बात क्यूं नहीं समझते...वो अपनी खाली सीट पर किसी जरूरतमंद को जगह दे सकते है...मुझे कई बार लोगों ने ऐसा करते टोका भी...लेकिन मैंने सुनी नहीं मुझे लगा...जो धूप में चल रहा है...उसके लिए ये छोटी सी सहायता बहुत बड़ी है...सच आज जब अपनी जगह उस नकाब पोश को देखा तो...दिल भर आया....पता नहीं क्यूं..उन सबकी जिन्हें कभी लिफ्ट दी थी...याद ताजा हो गई साथ ही एक एहसास...भी हुआ...संतुष्टि का...तृप्ति का ....लगा मैं तब सही थी...ऐसे लोग दुनिया में कम है...लेकिन है...ये समाज की अंगूठी में जड़ा हीरा है...जिनकी चमक कभी हल्की नहीं हो सकती ....और जिन्हें ये समाज पचा भी नहीं सकता...यहीं वज़ह है कि इन्हे या तो लोगों की धूर्तता से बचने की एतियात देकर ऐसा करने से रोका जाता है या पागल कह कर नकार दिया जाता है...बहराल मै तुम्हारे साथ हूं....और तुम्हे जल्दी खोज लूंगी......

अपर्णा (4:45)

Monday, August 10, 2009

जानती हो न मॉ

मैं जब रोना चाहती हूं पर रो नहीं पाती,
मेरे उदास चेहरे...कॉपते होठों...बरौनियों के पर्दे से झॉकते आसुओं को तुम देख लेती हो न...
मेरे दिल से उठी उमंगों के उफान को
जब मैं अभिव्यक्तिहीनता के बांध से रोक देती हूं..
तुम उसे अपने दिल में महसूस करती हो न...
अपनी गलती को जब मैं अपने चेहरे के बनावटी भावों से नकार देती हूं...
तुम उसे पहचान कर माफ कर देती हो न...
तुम सब जानती हो न मॉ....

अपर्णा(12:51)

Sunday, August 9, 2009

नीम का पेड़

आज मन कुछ ठीक नहीं
अपने घर के बाहर वाला नीम का पेड़ याद आ रहा है...
बड़ा गहरा रिश्ता रहा हमारा
मां की छड़ी से उसने मुझे कई बार बचाया
उसकी डालों ने मेरा भारी वज़न उठाया
अनीता मेरे बचपन की सहेली रोज शाम मुझसे वहीं मिलने आती
बाते करती जाती औऱ नाखूनों से पेड़ को कुरेदती थी..
बहरा बुआ को जब खुजली हुई तो उसी पेड़ के नीचे नीम की पत्ती तुड़वाने आती थी
चबूतरे पर बैठती...खैनी पीटती और मुहल्ले भर को गरियाती थी
गंगा चरण चाचा का लड़का मदन एक बार मुझसे वहीं भिड़ गया
मार कर भागा और चबूतरे पर ही गिर गया
दीपावली मे हम उस पेड़ के नीचे घरोनदा बनाते थे
पहले गोबर से लीपते फिर उसमे दिया जलाते थे
इस बार घर गयी तो वो पेड़ कट चुका था
चबूतरे पर देखा
तो एक नाखून...बुआ की खैनी...दिए का टुकड़ा और मेरा बचपन पड़ा था...

Saturday, August 8, 2009

उम्मीद नहीं किस्मत

दरअसल अपनी हार या गलती स्वीकारने का सामर्थ्य हममे नहीं होता...यहीं वज़ह है कि हम हार को भी महिमामंडित करते है...मैं यहां नैराश्यवाद की तरफदारी कतई नहीं कर रही...बस सच्चाई से अवगत कराना चाहती हूं...और साफ तौर पर यह कह देना चाहती हूं कि सच्चाई का सिर्फ सामना होना चाहिए...महिमामंडन नहीं....

गरजते बादल फिर धोखा दे गए..
आस बूंद आसूं सब ले गए...
वहां आंगन में एक बरतन का टुकड़ा अब भी रखा है..
उम्मीद नहीं...किस्मत, तप रहा है.......

अपर्णा(12:05)

Friday, August 7, 2009

कायल हूं उस विरोध की...

मर्डर के केस में अंदर हूं...12 साल से सज़ा काट रही हूं ...पति बुरा आदमी था... मार डाला...अफसोस नहीं...सड़-सड़ कर मरने से तो ये जिंदगी बेहतर है...ये जवाब है अपने पति के क़त्ल के इल्ज़ाम में सजा काट रही ईश्वरी के....और ये जवाब देते हुए उस महिला कैदी के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं...बल्कि गजब का आत्मविशवास है...वहीं जो हारी हुई बाज़ी जीत लेने के बाद आ जाता है...वहीं जो हमें अपनी ही नज़रों में ऊपर उठा जाता है...दरअसल यहां आत्मविशवास को उसके गुनाह के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता...ये आत्मविशवास एक स्वतंत्र स्त्री का है जो आज सलाखों के पीछे भी खुद को आजाद पाती है...मुद्दा ये नहीं कि उसने सहीं किया या गलत...मुद्दा ये है कि उसने परतन्त्रता की जिंदगी नहीं स्वीकारी...उसके जितनी शिक्षा....और आस-पास के माहौल में यकीनन कोई नारीवाद की बाते तो नहीं ही कर सकता...लेकिन ये आधी दुनिया की उन चुनिंदा स्त्रियों में से एक है...जिसकी नसों में विरोध दौड़ता है...जो इतनी लंबी सजा काट लेने के बावजूद भी आत्मविश्वास से भरपूर है....एक बार फिर लिख देना चाहती हूं कि मुद्दा ये नहीं कि उसने सही किया ये गलत...मुद्दा ये है कि कुछ तो किया...विरोध तो दर्ज कराया...तकलीफों भरी जिंदगी की कसक उन नज़रों से आंसू बनकर झलक आयी...फिर भी उन निगाहों को एक पल के लिए भी शर्मिंदगी ने नहीं ढ़का...वो तकलीफ का आसूं बरोनियों से तो ढ़लका पर अन्तस के आत्मविश्वास ने उसे गालों पर रोक दिया...मैं उस गुनाह की पैरोकार नहीं जो उस ईश्वरी से हुआ...पर उस विरोध की क़ायल हो गयी...जो उन आंखों में तैर रहा था...विरोध दम घोटू जिंदगी का..विरोध पुरूष के अत्याचार का...विरोध नारी को नारी बना देने के व्यवहार का...विरोध उस परिवार का उस परिवेश का जिसने उसे कभी उसकी शर्तों पर जीने न दिया... वो विरोध उन आंखों से निकला औऱ मेरे ज़हन में समा गया...मैं हिंसा की विरोधी हूं...इसलिए किसी हाथ में कटार नहीं पर नज़र में वों विरोध देखना चाहती...सच मैं कायल हूं उस विरोध की...
(रक्षाबंधन के दिन मैं महिला जेल गई थी....भाईयों का इंतजार करती महिला कैदियों से मिलने..दरअसल वज़ह मेरी ख़बर थी...वहीं इस महिला कैदी ईश्वरी से मुलाकात हुई...अभी तक भूल नहीं पाई और शायद कभी वो नज़र नहीं भूल पाऊगी)
अपर्णा(10:58)

Monday, August 3, 2009

शोला हूं भड़कने की गुज़ारिश नहीं करता.....

...गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूं लेकिन चढ़ते हुए सूरज की परशतिश नहीं करता....शोला हूं भड़कने की गुजारिश नहीं करता....जगजीत सिंह की गज़ल की ये चंद लाइने गाहे-बगाहे मेरे जेहन आ ही जाती है...हालांकि ये गज़ल सुने भी जमाना हो गया....फिर भी दिन में कई बार ये लाइने जाप की तरह जप ही लेती हूं...मिसाल के तौर पर जब किसी सूट-बूट धारी को नाक सिकोड़ते फुटपात के किनारे से गुजरता देखती हूं...किसी रेस्टोरेन्ट में साहब को वेटर को सुन या अबे कहते हुए सुनती हूं... या किसी मैडम को नखरे दिखाते भौहें सिकोड़ते उस गली से गुजरते देखती हूं...जहां बचपन में वो खेला करती थी...जब पापा कलेक्टर नहीं हुए थे...या फिर उस अतिथि को जो काला चश्मा पहन कर एनजीओ में सेवा करने आता है...दो तीन फोटो खिंचवाता है और कैमरा हटते ही उसकी समाज सेवा वहीं आखिरी सांस ले लेती है....इन सारी जगहों पर मेरा रोआ-रोआ कांप जाता है...एक विशाद है जो मुझे घेर लेता है एक तड़प जो दम घोटू है...ऐसे किसी भी साहब या मैडम की मै परशतिश नहीं करती...मेरी नज़र में वो इंसान बड़ा है...जो सामने वाले को सिर्फ इसलिए इज्जत देता है क्योकि वो भी एक इंसान है...किसी साहब या मैडम की सूट-बूट, पैसे या खूबसूरती से मुझे समस्या नहीं...मेरा विरोध उस अभिमान से है..जो उसे झूठा बनाता है..असमानता सिखाता है...भेदभाव बढ़ाता है...सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता....शोला हूं...

अपर्णा (11:04)

ये कहानी, कहानी क्यूं है.....

रायपुर आए लगभग एक महीना हो गया...जबसे यहां आई हूं कुछ ख़ास पढ़-लिख नहीं सकी....सौभाग्य से पिछले हफ्ते...अमृत लाल नागर की एक अप्रकाशित कहानी...मछली पढ़ने का मौका मिला...सच एक छोटी सी कहानी ने जैसे लंबे समय की थकान मिटा दी....कहानी बहुत सीधी और सरल थी...फिर भी कहीं गहरे पैठ कर गयी...दरअसल सीधी बात समझना बहुत मुश्किल होता है...क्योंकि ये हमें बहाने बनाने और टालने का मौका नहीं देती.....ख़ास बात..इसके साथ चलना बहुत मुश्किल होता है....खैर...अब बात कहानी की....नागर जी की रचनाओं का यूं तो एक समृद्ध इतिहास रहा है...ऐसे में मछली को अद्वितीय रचना कह देना भी रचनाकर के अन्य रचनाओं के साथ न्याय न होगा.....इन सबके बावजूद मछली दो मायनों में ख़ास है....पहली गज़ब की संघर्षशीलता को सरलतम शब्दों में प्रस्तुत करने की दृष्टि से....दूसरी गद्य के भीतर से झांकते पद्य दर्शन की दृष्टि से...कहानी का सार सीधा सा है...एक छोटी सी मछली सूरज को छूने की इच्छा जाहिर करती है...सब के मना करने के बावजूद... क्षितिज को अपना आखिरी पड़ाव मानकर लगातार विपरीत परिस्थितियों में सफर करती है...आखिरकार थक कर बेहोश हो जाती है...लेकिन हार नहीं मानती....उसके इस अंत पर सब उसका उपहास करते है....लेकिन आखिरकार वरूण देव प्रकट होते है... उसे अपने हाथों में उठाकर उसके कृत्व की सराहना करते है...मछलियों को हमेशा के लिए ये वरदान देते है कि... हर मछली अब धारा के विपरीत ही तैरेगी...औऱ उस नन्ही मछली की प्रजाति की मछलियां अब हमेशा सूरज को अपने पंखों पर लेकर घूमेगीं...यानि उनके पंख इतने उजले होगे कि अंधेरें रास्तों में भी चमकेगें...ख़ुद तो रौशन होगे ही साथ ही औरों को भी रोशनी देगें...यूं तो वो मछली मारी गयी लेकिन बड़ी बात ये है कि अपने पीछे वो एक इतिहास छोड़ गयी...जो यहां लिखने लायक है...जो सीखने लायक है..जो स्फूर्ति भर देने लायक है....और उससे भी बढ़कर...मछली ने अपने जीवन में वो किया जो उसने चाहा...अंजाम जो भी रहा हो...पर कम से कम रास्ता तो मकसद के साथ तय किया गया...अंत भी तमाम छोटी मछलियों को रौशनी दे गया....और धारा के विपरीत तैरने का हुनर भी....वो मछली महान है...उसका जीवन महान है...उसका कृत्व सम्मान के लायक है....सवाल ये है कि...ये सीधी कहानी हमारी जिंदगी से मेल क्यों नहीं खाती...क्या हम मछली से भी छोटे है....या हमारे हौसले पस्त है....दरअसल ये सवाल हर शख्स का खुद से होना चाहिए कि वो अपने आप से क्या चाहता है...समझौतों, बेईमानी भरी परतंत्र खोखली जिंदगी....या एक मकसद के लिए चुना गया रास्ता...जो भले ही मुश्किल हो...लेकिन हमारे अंदर के आत्म सम्मान को पैदा होने से पहले ही उसका गला तो न घोटे..जो विरोध करना सीखे...जो लड़ना सीखे...ठुकराना सीखे..ना कहना सीखे...और जिंदगी की इज्जत करना सीखे...न कि इस समझौतावादी बाजार में हर दिन खुद को नीलाम करे...क्योकि सवाल अब भी वहीं है...मछली की कहानी हम सब की कहानी से मेल क्यूं नहीं खाती....

अपर्णा...(11:36 P.M)

Monday, March 16, 2009

कोई यहाँ आया था

कल कोई यहाँ आया था

बीती रात किसी ने मेरा दरवाजा खटखटाया था

कोई मुसाफिर रास्ता भूल गया था शायद

इतना निंदासा था की चोखट पर ही ढेर हो गयामंजिल भूल कर रस्ते पर ही सो गया

यही दरवाजे पर बैठी हु सुबह उठते ही रास्ता पूछेगा

मै न मिली तो बीती रात ओर मुझे दोनों को कोसेगा
कल कोई यहाँ आया था

मै ही स्वतंत्रता हू

हा मै ही स्वतंत्रता हूँ
ओर वो जो बेधड़क मेरी नसों से गुजर गया वो विरोध मेरा प्रेमी है
मुझे लाज नही आती कहने में, लगभग हर रात हमबिस्तर रही हूँ उसके, ओर उन्ही अधजगी खूबसूरत रातो का परिणाम है वो मेरा जिगर का टुकडा विचलन
वो अभी छोटा है
बोल नही पाता रोता है चिलाता है ओर ऐसे ही अपनी व्यथा बता है
उसकी ये व्यथा कोई समझ नही पता लेकिन मै सब समझती हूँ आखिर माँ हूँ
वो अभी संघर्ष नही खा पाता इसलिए स्तनपान कराती हूँ केवल विचार ही पिलाती हू
वो बड़ा होकर परिवर्तन बनेगा
हमारा नाम रोशन करेगा
न उसे गाली मत देना वो मेरी नाजायज़ ओलाद नही प्रेम साधना है
विरोध ने उसे अभी नाकारा नही है वो मेरा बच्चा है आवारा नही है
उसे अनाथ भी मत कहना क्योकि मै अभी जिन्दा हूँ
ओर मै बता दू की अपने इस कृत्य पर मै शर्मिंदा नही हूँ